श्री सिद्धमंगलस्तोत्र
सिद्धमंगल स्तोत्र (Shree Siddha Mangal Stotra) श्री गुरुदेव दत्त अवतार श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामीजी का सबसे चहिता स्तोत्र है. श्रीपाद श्रीवल्लभ चरित्रामृत ग्रंथ के सतरहवे अध्याय में ये स्त्रोत्र लिखा हुआ है. इस स्तोत्र के पठन के लिए किसी तरह का विधिनिषेध नहीं है. जो भक्त मन, काया और कर्म से श्री दत्तात्रय भगवान की आराधना करके इस स्तोत्र का पठन करता है उसे श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की कृपा प्राप्त होती है. इसके नियमित पठन से सूक्ष्म वायुमण्डलकी अदृश्य रूप से संचार करनेवाली सिद्धिया प्राप्त होती है. इस स्तोत्र के पठन से आत्मविश्वास बढ़ता है, मन शांत होने लगता है, मुश्किलों से निपटने की शक्ति प्राप्त होती है, लक्ष प्राप्ति में मदत मिलती है और अहंकार भी धीरे धीरे मिट जाता है.
स्तोत्र
श्री मदनंत श्रीविभुषीत
अप्पल लक्ष्मी नरसिंह राजा ।
जय विजयीभव, दिग्विजयीभव,
श्रीमदखंड श्री विजयीभव ॥
श्री विद्याधरी राधा सुरेखा
श्री राखीधर श्रीपादा ।
जय विजयीभव, दिग्विजयीभव,
श्रीमदखंड श्री विजयीभव ॥
माता सुमती वात्सल्यामृत
परिपोषित जय श्रीपादा ।
जय विजयीभव, दिग्विजयीभव,
श्रीमदखंड श्री विजयीभव ॥
सत्यऋषीश्र्वरदुहितानंदन
बापनाचार्यनुत श्रीचरणा ।
जय विजयीभव, दिग्विजयीभव,
श्रीमदखंड श्री विजयीभव ॥
सावित्र काठकचयन पुण्यफला
भारद्वाज ऋषी गोत्र संभवा ।
जय विजयीभव, दिग्विजयीभव,
श्रीमदखंड श्री विजयीभव ॥
दौ चौपाती देव लक्ष्मीगण
संख्या बोधित श्रीचरणा ।
जय विजयीभव, दिग्विजयीभव,
श्रीमदखंड श्री विजयीभव ॥
पुण्यरूपिणी राजमांबासुत
गर्भपुण्यफलसंजाता ।
जय विजयीभव, दिग्विजयीभव,
श्रीमदखंड श्री विजयीभव ॥
सुमतीनंदन नरहरीनंदन
दत्तदेव प्रभू श्रीपादा ।
जय विजयीभव, दिग्विजयीभव,
श्रीमदखंड श्री विजयीभव ॥
पीठिकापूर नित्यविहारा
मधुमतीदत्त मंगलरूपा ।
जय विजयीभव, दिग्विजयीभव,
श्रीमदखंड श्री विजयीभव ॥
* श्री सिद्धमंगलस्तोत्र संपूर्ण *
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु के अवतार की कहानी
श्रीपाद श्रीवल्लभ कलियुग में श्री दत्तात्रेय के पहले पूर्ण अवतार हैं। श्रीपाद श्रीवल्लभ का जन्म 1320 में भाद्रपद (गणेश चतुर्दी के दिन पीठपुरम में, जिसे पहले पीटिकापुरम भी कहते थे जो अभी के आँध्रप्रदेश में स्थित है. श्री अप्पलाराजा और सुमति शर्मा के यहाँ हुआ था।
अप्पलाराजा और सुमति शर्मा श्री दत्तात्रेय के भक्त थे। उनका पहला बेटा लंगड़ा था और दूसरा अंधा और तीन बेटियां भी थी। एक बार अप्पलाराजा शर्मा परिवार श्राद्ध की तैयारी कर रहा था और इस कार्यक्रम में कई ब्राह्मणों को अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था। दोपहर के समय एक भिक्षुक भिक्षा के लिए आया। हालाकि प्रथा इसे रोकती है लेकिन वेद कहता है कि जो किसी भी भोजन के समय भोजन के लिए आता है वह कोई और नहीं बल्कि स्वयं विष्णु हैं, आमंत्रित ब्राह्मणों को भोजन कराने से पहले, सुमति ने भिक्षुक को भगवान विष्णु मानते हुए भोजन की पेशकश की.
उसके विश्वास ने भगवान के दिल को छू लिया और उन्होंने तुरंत उसे उनके वास्तविक रूप का दर्शन कराया। उनके दैविक रूप के तीन सिर थे, बाघ की खाल से उनका शरीर ढका हुआ था और शरीर विभूति से सना हुआ था। भगवान ने कहा, “माँ, मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ। अब, जो भी तुम चाहो मुझसे माँग लो।”
इस दृश्य ने सुमति की आँखों को धन्य कर दिया और अब सुमतिके कान भगवान दत्तात्रयके मधुर शब्दों से पवित्र हो गये। उसने कहा, “भगवान! आपने मुझे माँ के रूप में संबोधित किया, कृपया अपने शब्द को वास्तविकता में बदल दें” भगवान ने उत्तर दिया तथास्तु (ऐसा ही हो) और यह कहकर उसे आशीर्वाद दिया कि उसके के पेट से वो स्वयं इस धरती पर मनुष्य रूप में जन्म लेंगे । भगवान ने उससे यह भी कहा कि मैं तुम्हारे साथ 16 वर्ष तक रहूंगा और फिर शेष 17 वर्ष के लिए दूसरे स्थान पर चला जाऊंगा। भगवान उसे आशीर्वाद देकर अन्तर्धान हो गये।
सुमति ने अपने पति को भगवान द्वारा उसे दी गई दिव्य दृष्टि और दिव्य पुत्र की उसकी इच्छा पूरी करने के बारे में बताया। दंपत्ति खुश हो गए और एक साल के भीतर उन्हें एक बेटा हुआ। उन्होंने बच्चे का नाम ‘श्रीपाद’ रखा।
अवधूतचिंतन श्री गुरुदेव दत्त महाराज की जय
हेडगेवार परिवार के मूलपुरुष की कहानी
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु ने १६ साल की उम्र में सन्यास लिया और ३० साल की आयु तक शरीर रूप में लीला करते रहे. फिर उन्होंने कुरवपुरम जो की कृष्णा नदी के किनारे बसा एक छोटासा गाव् है वहा जलसमाधि लेके शरीर को त्याग दिया। उन्होंने शरीर त्यागने के बाद भी वो तेजरूप में कुरवपुरम में मौजूद रहे और भक्तो की गुहार पर उन्हें दर्शन देने देने, उनपे कृपा करने वो आते थे और वो आज भी वही मौजूद है और भक्तो को शरीर रूप में दर्शन देते है.
श्रीपद श्रीवल्लभ प्रभु के अन्तरधाम होने के कुछ साल बाद, एक ब्राह्मण नाम वल्लभेश, उन्होंने प्रण लिया की वे कुरवपुरम जाएंगे और १००० ब्राह्मणोंको भोजन कराएँगे अगर उन्हें हर साल से ज्यादा मुनाफा हुआ तो. और कुछ ही दिनों में उनकी मनोकामना पूरी हुई और उन्हें कई ज्यादा मुनाफा हुआ. फिर उन्होंने कुरवपुरम जाने की ठान ली. और वो भोजन के लिए लगनेवाला धन साथलेके निकलपड़े कुरवपुरम की ओर . जब वो कुरवपुरम जाने लगे तो रस्ते में डाकुओने उनको घेर लिया। डाकुओने वल्लभेश की संपत्ति लूटकर, उनका सर धड़ से अलग कर दिया। लेकिन मरने से पहले उन्होंने श्रीपद श्रीवल्लभ भगवान को पुकारा था. उसी वक्त जंगल में कही से एक साधु वहा आये. जिनके हाथ में त्रिशूल था और सर पे जटाये थी. दिखने में मानो महादेव। उन्होंने अपने त्रिशूल से डाकुओका वध किया और वल्लभेश का सर उसके धड़ से जोड़ कर उसे फिरसे जिन्दा कर दिया।
वल्लभेश ब्राह्मण को हेडगेवार परिवार का मूलपुरुष कहा जाता है. श्री केशव बलीराम हेडगेवारजी जो की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के संस्थापक है, वो नौवे (9th) वंशज है वल्लभेशजी के.